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कविता

बुर्के से झाँकती दो आँखें

अंकिता रासुरी


बुर्के से झाँकती उन आँखों को देखती हूँ
सब कुछ कहने को आतुर वो चेहरा
और उस खनखनाती हुई आवाज का जादू कहीं खो जाता है
उन मुस्कुराते आँखों वाले चेहरे में
छिपी कोई गहराती हुई पीड़ा
ना जाने कितनी जोड़ी जख्मों को छिपाते हुए
जी रही हैं वो जख्मों का पूरा इतिहास
अपने क्रूर वर्तमान सहित
और उसका वर्तमान भी दबा पड़ा होगा
एक भविष्य में
जिसको बदलने का फैसला वो कर रही होगी
उस काले बुर्के के भीतर ही कहीं

 


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